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जारी है, जारी रहेगा लोकतंत्र का चकल्लस, बनते रहेंगे बेवकूफ

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लेखक: शैलेंद्र कुमार भाटिया
इस साल हिंदी के कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन के 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। जब पहली बार ‘राग दरबारी’पढ़ा तो लगा कि कोई इतना सटीक कैसे लिख सकता है! ऐसा लगा कि गांव की बकलोलई रोजमर्रा की किचकिच और राजनीति का सीधा प्रसारण जैसे महाभारत के संजय सुना रहे हों तथा व्यास जी की शक्ल में शुक्ल जी उन्हें लिपिबद्ध कर रहे हों।

साठ के दशक में लिखा गया यह उपन्यास कलयुग की कलकलाहट का वर्णन करता है। एक सौ नब्बे साल परतंत्र रहने वाला देश जब स्वतंत्र होता है तो विकास के मिश्रित मॉडल का प्रारंभिक 20 वर्षों में एक गांव में कैसा कचूमर निकलता है, उसका एफिडेविट है ‘राग दरबारी’। यूटोपियन टाइप की बात इस उपन्यास में नहीं है। जो कुछ है सब किसी न किसी बहाने आंख से गुजरा है। शुक्ल जी डेप्युटी कलेक्टर थे। लगता है, डेप्युटी कलेक्टर के रूप में खेत, मेड़, नाली के झगड़े, प्रधानी व अन्य स्थानीय चुनाव, विकास के लाभार्थियों के चयन और कचहरी के कार्य आदि से जुड़े अनुभव यह उपन्यास लिखते हुए शुक्लजी के बहुत काम आए। गांव की गुटबंदी, निजी स्वार्थ की पराकाष्ठा तथा भ्रष्टाचार का खून में समाकर डीएनए बन जाना- सब कुछ दिखता है इस उपन्यास में। जीवन के सफेद व काले पक्ष का वर्णन साथ-साथ दिखता है। मनुष्य का चरित्र और समाज के सामने उसका दोगलापन दोनों बराबर चलते हैं। प्रजातंत्र, प्लानिंग कमिशन, थाना, तहसील पंचायत, इंस्पेक्टर, केस, डेप्युटी, वकील, ट्रक, ट्रक ड्राइवर का वर्णन जो साठ के दशक में हुआ था, वह हू-ब-हू आज भी मौजूद है।

आज के सोशल मीडिया पर छद्म जागरूकता और प्रॉपेगैंडा का जो मेल दिखाई देता है, वह ‘राग दरबारी’ में साठ के दशक में ही लिखा जा चुका है। एक बानगी देखिए –

‘…आप लोग देश का उद्धार इसी प्रकार करेंगे? यह किंतु ,परंतु, तथापि यह सब क्या है? श्रीमान यह नपुंसकों की भाषा है। अकर्मण्य व्यक्ति इसी प्रकार अपने आप को और देश को वंचित करते हैं। आपका निर्णय स्पष्ट होना चाहिए। किंतु, परंतु थू।’

यह एक और बानगी- ‘सभी मशीनें बिगड़ी पड़ी हैं। सब जगह कोई न कोई गड़बड़ी है। जान पहचान के सभी लोग चोट्टे हैं। सड़कों पर सिर्फ कुत्ते, बिल्लियां और सूअर घूमते हैं। हवा सिर्फ धूल उड़ाने के लिए चलती है। आसमान का कोई रंग नहीं। उसका नीलापन फरेब है। बेवकूफ लोग, बेवकूफ बनाने के लिए, बेवकूफों की मदद से, बेवकूफों के खिलाफ बेवकूफी करते हैं।’ सचमुच आज कौन किसको बेवकूफ बना रहा है समझ में नहीं आता। आज का जो परिदृश्य है उसमें हम हर दिन चित होते रहते हैं। अगर किसी दिन हम बेवकूफ नहीं बनते हैं तो हमें बहुत बुरा लगता लगता है। मानो बेवकूफ बनना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो।

वास्तव में ‘राग दरबारी’ शिवपालगंज गांव और उसके अंदर के ताने-बाने का वर्णन है, जो पंचवर्षीय योजना के नेहरू मॉडल और सतत विकास को धता बताकर मूल्यहीनता को पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। मूल्यहीनता ही इसकी विशेषता है और यही यथार्थ है। सरकारी कार्यालय के निष्ठुर और सामंतवादी रूप का अद‌्भुत रेखाचित्र इसमें खींचा गया है। अगर ‘राग दरबारी’ को सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए गीता कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें सरकारी तबके के लिए ढेर सारे पाठ हैं, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। कमियों को जानना कोई बुरी बात नहीं होती।

‘राग दरबारी’ पढ़ने से पता चलता है कि सिस्टम में खराबी बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र की एक विशेषता है। इसके एक चरित्र वैद्यजी के बारे में इसमें लिखा गया है कि वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे। इसी प्रकार ‘राग दरबारी’ था, है और रहेगा क्योंकि लोकतंत्र का चकल्लस

यूं ही सदियों तक जारी रहनेवाला है। और इसकी प्रासंगिकता के क्या कहने जनाब! घटनेवाली नहीं है। यह चकल्लस भी समानुपातिक है, बढ़ता ही रहेगा।


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