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सड़क पर क्यों भटक रहे गोवंश

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अक्षय शुक्ला

घर की बालकनी में बैठकर अखबार पढ़ते वक्त रोज़ सुबह एक दृश्य दिखाई देता है। सड़क किनारे बैठे गाय के झुंड के पास हर थोड़ी देर में एक कार या दोपहिया आकर रुकता है। हाथ में पॉलिथीन लिए लोग उतरते हैं, उसमें से बची हुई रोटियां, ब्रेड या खाने का अन्य सामान निकालकर गाय को देते हैं और खाली पन्नी वहीं फेंककर निकल जाते हैं। इनमें से कुछ लोग तो पन्नियों से खाना निकालने की भी ज़हमत नहीं उठाते, पूरा पैकेट ही वहां रखकर चल देते हैं। गाय उस पॉलिथीन की थैली समेत ही अंदर का सामान निगल जाती हैं। बल्कि बगल में फेंकी हुई पन्नियों में बचा खुचा कुछ मिलने की आस में उन्हें भी निगल लेती हैं।

गोमाता को अन्न देकर पुण्य कमाने की आस रखने वाले ये लोग सड़क किनारे गंदगी और प्रदूषण तो बढ़ा ही रहे, साथ ही इन मवेशियों की सेहत के साथ भी बड़ा खिलवाड़ कर रहे हैं। खाना देने के बाद लोग पॉलिथीन अपने साथ ही ले जा सकते हैं और कहीं कूड़ेदान में डाल सकते हैं। लेकिन यह सिविक सेंस आज भी बहुत कम लोगों में दिखता है।

अभी चार दिन पहले ही फरीदाबाद से आई एक खबर से तो ऐसे लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए। वहां एक गाय के पेट से 31 किलो कचरा निकला। इस गाय को सड़क पर कराहते देख एक संस्था पशु चिकित्सक के पास ले गई। उसका पेट फूला हुआ था और दर्द से बेहाल थी। सर्जरी के दौरान गाय के पेट से ढेर सारा प्लास्टिक, कीलें, स्क्रू, नट बोल्ट, सिक्के और पत्थर निकले। ये इंसानों का ही फेंका हुआ कचरा था, जिससे इस बेज़ुबान की जान पर बन आई। इस गाय की जान तो बचा ली गई लेकिन तीन साल पहले इसी शहर में ऐसे ही हाल में मिली एक गर्भवती गाय इतनी भाग्यशाली नहीं थी। उसके पेट से 70 किलो से अधिक प्लास्टिक और लोहे का कचरा निकला था।

कुछ साल पहले गुजरात के अहमदाबाद में भी एक गाय के पेट से सौ किलो से अधिक कचरा निकला था। वह गाय भी गर्भवती थी और उसकी भी जान नहीं बचाई जा सकी थी। अलग-अलग राज्यों से इस तरह की खबरें हर थोड़े दिन में आती रहती हैं।

खुले में घूमते मवेशियों के साथ ऐसे हादसों से सवाल उठता है कि आखिर देश के हर शहर में, हर सड़क पर इतने आवारा पशु क्यों हैं? जब अनेक राज्यों में गायों के संरक्षण और कल्याण के लिए गोसेवा आयोग हैं और दुर्बल, अनउत्पादक, बूढ़े या छोड़ दिए गए मवेशियों को प्रश्रय देने के लिए सैकड़ों गोशालाएं बनाई गई हैं, उसके बावजूद छुट्टा पशुओं की यह समस्या कम होने के बजाय बढ़ती क्यों जा रही है? जबकि इन्हें अच्छी खासी सरकारी मदद मिलती है। और इनका काम है कि कोई भी गोवंश सड़क पर भटकता न मिले।

दरअसल, जैसे ही कोई गाय दूध देना बंद कर देती है या कोई सांड काम का नहीं रहता, इनके मालिक इनसे छुटकारा पा लेते हैं। पेट भरने के लिए ये मवेशी इधर-उधर भटककर खाना ढूंढते रहते हैं। इनका मुख्य भोजन तो चारा, घास, फलियां और हरे पत्ते हैं लेकिन सड़क पर तो जो मिला, वही खा लेते हैं। वहीं से इनके पेट में हर तरह का कचरा पहुंच जाता है।

मेन रोड से लेकर गलियों तक में घूमते ये मवेशी कई बार खतरनाक भी हो जाते हैं। बीच सड़क पर सांडों की झड़प की खबरें आए-दिन आती रहती हैं। इनकी चपेट में आकर कितने ही राहगीर अपनी जान गंवा चुके हैं।

दो साल पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तो छुट्टा जानवर एक बड़ा मुद्दा बन गए थे। बुंदेलखंड समेत कई जगह इनसे फसलों को नुकसान पहुंचने की शिकायतें लगातार आ रही थीं। किसानों को रात-रात भर जागकर खेतों की रखवाली करनी पड़ रही थी। विपक्ष, खासकर समाजवादी पार्टी तो इस मुद्दे पर सरकार को आज भी घेरती रहती है।

यूपी सरकार ने सीएम खेत सुरक्षा योजना शुरू करने के साथ ही पिछले साल के अंत में सड़कों को आवारा पशु मुक्त करने का अभियान भी चलाया। किसी भी सड़क या खेत में आवारा पशु मिलने पर ज़िलाधिकारियों की जवाबदेही तय कर दी गई। लेकिन इसका बहुत असर ज़मीन पर नहीं दिख रहा। समस्या की जड़ में जाए बगैर ऐसी कोशिशों का कोई फायदा होगा भी नहीं।

 

 


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